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Monday 5 September 2011

"चंचल मन "


मन चंचल उढ रहा था पंख लगाकर 
तभी उसकी नज़र पड़ी एक कोमल फूल पर ,
दोनों की आखें हुई चार ,
दोनों ने रख्खे अपने अपने विचार ,
कसमे खाई , वादे किये ,
के तोह बिन मै नहीं , मोह बिन तुम नहीं.

फिर समय का चक्र घुमा ,
फासले बढे, फैसले लिए,
राह है , हम दोनों  की अलग ,
dhund लो अपने लिए कोई और हमसफ़र .

मन रोता रहा , फूल को जाता देख कर  ,..

9 comments:

  1. फिर समय का चक्र घुमा ,
    फासले बढे, फैसले लिए,
    राह है , हम दोनों की अलग ,
    dhund लो अपने लिए कोई और हमसफ़र .

    ohhhhhhh
    akshar man ke sath aisa hi hota hai....
    jis ful ko o pashand karta hi o dur chala jata hi..

    bahut sunder likhati hain ap.

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  2. ye word verification hata lijiye...
    comments karne wale ko ashani hogi...

    bas
    dashboard>satting>comment>word verification ko no kar dijiye.

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  3. कुछ तो है इस कविता में, जो मन को छू गयी।

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  4. बहुत अच्छा प्रयास है आपका,Meri Soch ji.
    लिखती रहिएगा,दिन प्रति दिन निखेरेगा यह.

    मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है.

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  5. बहुत अच्छी रचना.

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  6. सोचा, सोचा बहुत सोचा.........समझ नहीं आया कि क्या टिप्पणी करूँ........बस इतना ही कहूँगा.......कि जब ह्रदय आहत होता है......तो शब्द और सृजन अपने आप होने लगते हैं.......

    बहुत ही खूबसूरत लिखा है.......खास तौर से मुझे एक लाइन बहुत अच्छी लगी........

    "के तोह बिन मै नहीं , मोह बिन तुम नहीं."

    मेरी ओर से अच्छी कविता लिखने के लिए बधाई.......

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